इसके साथ ही यह सवाल उठने शुरू हुए हैं कि आखिर वर्ष 2000 में मिलेनियम उद्देश्य व लक्ष्य किस आधार पर तय किए गए थे। क्या इसके लिए निर्धन व विकासशील देशों में पर्याप्त जन-विमर्श हुआ था, या यह धनी देशों व चंद अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने ऊपर से लाद दिए थे? क्या इस तरह का प्रयास आगे भी होगा? यह सवाल इसलिए उठाए जा रहे हैं क्योंकि चंद धनी देशों ने एक ऐसा माहौल बनाया है जिनसे ऐसा प्रतीत हो कि वे दुनिया के गरीब लोगों का दुख-दर्द कम करने के लिए सबसे बड़ा योगदान दे रहे हैं, जबकि हकीकत इसके विपरीत है। यदि इसका पूरा हिसाब लगाया जाए कि विभिन्न स्रोतों से कितना पैसा वैध-अवैध तरीकों से गरीब व विकासशील देशों से धनी देशों में जा रहा है, तो यह राशि बहुत बड़ी है। धनी देश सब स्रोतों से जितनी विदेशी सहायता देते हैं, वह इस राशि का बहुत कम प्रतिशत है। इस तरह जहां व्यापार व पेटेंट के अनुचित नियमों, टैक्स से बचने के अनुचित तौर-तरीके, टैक्स हैवनों के अनुचित संचालन आदि विविध तौर-तरीकों से धनी देश जितनी अन्यायपूर्ण कमाई निर्धन व विकासशील देशों से कर रहे हैं, उसका बहुत कम हिस्सा ही विदेशी सहायता के रूप में यहां भेजते हैं। पर माहौल ऐसा बनाया जाता है जैसे वे बहुत बड़ा योगदान दे रहे हों। सहस्राब्दी तथ्यों को भी इसी तरह प्रस्तुत किया गया है जैसे धनी देशों से मिलने वाली सहायता ने बहुत कल्याणकारी कार्य किए हों।
हकीकत यह है कि जो अपेक्षाकृत कम सहायता धनी देशों ने दी है, उसके साथ भी तमाम अनुचित शर्तें जुड़ी रही जो अधिक व्यापक व संतुलित विकास की राह में बाधक बनीं। अतः निर्धन व विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपनी जरूरतों के अनुसार जैसा विकास चाहिए इसके बारे में अधिक स्वतंत्र व स्पष्ट सोच आपसी एकता से बनाएं जिससे कोई बाहरी एजेंडा उन पर थोपा न जा सके। भावी विकास का एजेंडा तय करने के लिए गांव व मोहल्ले स्तर पर व्यापक विमर्श होना चाहिए जिसमें सभी लोगों की भागेदारी हो। निर्धन वर्ग व महिलाओं की आवाज को समुचित महत्त्व देने का प्रयास करना चाहिए। विकास के विभिन्न विकल्पों की सही जानकारी गांव व मोहल्ले तक पहुंचनी चाहिए जिससे लोग सही चुनाव कर सकें। इस आधार पर जो एजेंडा निकलेगा वही लोगों का वास्तविक एजेंडा होगा। यह एक ऐसा दौर है जब विकास का मुखौटा पहन कर धनी देश ऐसा एजेंडा फैलाने के चक्कर में हैं जो उनके आर्थिक हितों को तेजी से बढ़ाए। अतः अपने राष्ट्रीय हितों के बारे में इस समय विशेष तौर पर सचेत रहने की जरूरत है।
हाल के समय में देखा गया कि कुछ विकसित देश व वहां के संस्थान कुछ विशेष बीमारियों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं जबकि व्यापक स्तर पर स्वास्थ्य सुधार के प्रयास उपेक्षित हो रहे हैं। उसी समय यह भी देखा गया कि इन देशों की कंपनियां इन रोगों की दवाएं बहुत मोटे मुनाफे पर बेच रही हैं। और इस मुनाफे की रक्षा के लिए पेटेंट कानून में बदलाव के लिए दबाव बना रही हैं। तो इस स्थिति में सवाल उठते हैं कि उनका वास्तविक उद्देश्य क्या है। इस स्थिति में वहां का कोई संस्थान किसी महंगे इलाज को अपनाने के लिए कुछ सहायता दे देता है तो यह मान लिया जाता है कि बहुत बड़ा उपकार किया है, बहुत लोगों का जीवन बचाया है। पर कई बार यह महंगे इलाज को स्वीकृति दिलवाने का उपाय भर होता है जबकि बाद में महंगे इलाज का बोझ निर्धन देशों को स्वयं उठाना होता है। जो थोड़ी बहुत सहायता दी जाती है, वह संभावित मुनाफे से बहुत कम होती है। इसका चालाकी से उपयोग इस तरह किया जाता है कि अधिक महंगी तकनीकों को, अधिक मुनाफे वाली तकनीकों को बड़े पैमाने पर अपना लिया जाए व इसके लिए महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का समर्थन जुटा लिया जाए। इन सब प्रवृत्तियों का असर यह हो रहा है कि कुछ संकीर्ण तरह के आंकड़ों में चाहे सुधार हो जाए, पर व्यापक स्थितियां नहीं सुधर रही हैं। शार्टकट से कुछ अस्थाई लाभ चाहे मिल जाएं पर दीर्घकालीन स्थिति अधिक चिंताजनक हो रही है। इस तरह की पेचीदगियों को ध्यान में रखते हुए विकास संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने होंगे ताकि महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय हितों व जरूरतमंद लोगों के हितों की वास्तव में रक्षा हो सके।
(विविधा फीचर्स से साभार)