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नेसार अहमद
भारत की जनगणना 2011 के रोजगार संबंधित आंकड़े जारी हो गये हैं। इन आंकड़ों ने पिछले दो दशकों में कृषि तथा किसानों की बदतर हो रही स्थिति को ही उजागर किया है। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के दौर में बढ़ते लागत खर्च, आयात-निर्यात पर छूट से सीधे विकसित देशों के कृषि उत्पादों से मुकाबला, महंगे एवं नकली कीटनाशकों की मार तथा उद्योगों, खाद्यानों एवं शहरीकरण के लिये किसानों से छीनी जा रही जमीनों ने कुल मिलाकर वो स्थिति पैदा की है कि देश भर में किसान खेती छोड़ कर खेतों में ही मज़दूर बन रहे हैं। 2011 के जनगणना के आंकड़ों के अनुसार जहां किसानों की संख्या में कमी हुई है वहीं देश में कृषि मजदूरों की संख्या बढ़ी है। देश में ऐसा पहली बार हो रहा है कि कृषि पर निर्भर मजदूरों की संख्या अपने खेत पर खेती कर रहे किसानों से अधिक हो गई है। देश में किसानों की कुल संख्या वर्ष 2001 में 12.73 करोड़ थी जो 2011 में कम हो कर 11.87 करोड़ हो गई है। जबकि इसी अवधि में कृषि मज़दूरों की संख्या 2001 में 10.66 करोड़ से बढ़ कर 2011 में 14.43 करोड़ हो गई है। देश के कुल कामगारों में कृषि मज़दूरों का प्रतिषत 2001 में 26.5 प्रतिषत से बढ़कर 2011 में 30 प्रतिषत हो गया है। जाहिर है छोटे एवं सीमांत किसान खेती छोड़ रहे हैं और खेत मज़दूर बनने को विवश हो रहे हैं। यह प्रक्रिया राजस्थान सहित पूरे देश में जारी है।
परिवर्तन यह आया है कि कृषि क्षेत्र में किसान अपने खेतों पर काम नहीं करके दूसरे (बड़े) किसानों के खेतों पर मज़दूरी करने को बाध्य हो रहा है।
इसका कारण है उद्योगों, खनिजों तथा शहरीकरण के लिये कृषि भूमि का गैर कृषि उपयोग में परिवर्तन। सितंबर 2007 में राज्य सभा में दिये गये एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया था कि 2001-02 से 2005-06 के बीच देश में कुल कृषि भूमि में 6 लाख हैक्टेयर की कमी आई थी, जबकि इसी अवधि में गैर कृषि उपयोग की भूमि में 9.4 लाख हैक्टेयर की वृद्धि हुई थी।
देश में किसानों की घटती संख्या तथा कृषि मजदूरों की संख्या में आई बढ़ोतरी ने उस क्रूर स्थिति को ही उजागर किया है जिसके चलते लाखों किसान आत्म हत्या को मजबूर हो रहे हैं तथा देश भर में किसान अपनी जमीनों को बचाने के लिये आन्दोलन कर रहे हैं। आशा है देश तथा राज्य की सरकारें अब किसानों एवं खेती की सुध लेंगी।