कीर्ति
9 जून 2014 को माननीय राष्ट्रपति, श्री प्रणव मुखर्जी, ने
संयुक्त सदन को संबोधित करते हुए नई सरकार की संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को 33
प्रतिशत आरक्षण देने की वचनबद्धता दोहराई। सभी दलों की महिला सांसदों ने मेजें
थपथपाकर इसका स्वागत किया। पूर्ण बहुमत से आई सरकार की मंशा जाहिर होते ही उन
महिला संगठनों व नारीवादियों में पुनः आशा जगी होगी जो पिछले अठ्ठारह वर्षों से
महिला आरक्षण बिल पारित करवाने के लिए जद्दोजहद करते रहे हैं। जल्द ही यह छोटी सी
आशा बेबुनियाद लगने लगी होगी जब माननीय प्रधानमंत्री, श्री नरेन्द्र मोदी, ने 15
अगस्त 2014 को महिलाओं की सुरक्षा को लेकर तो जोरदार भाषण दिया पर
महिला आरक्षण के वादे को बड़ी सरलता से भूल गए।
संयुक्त सदन को संबोधित करते हुए नई सरकार की संसद और विधान सभाओं में महिलाओं को 33
प्रतिशत आरक्षण देने की वचनबद्धता दोहराई। सभी दलों की महिला सांसदों ने मेजें
थपथपाकर इसका स्वागत किया। पूर्ण बहुमत से आई सरकार की मंशा जाहिर होते ही उन
महिला संगठनों व नारीवादियों में पुनः आशा जगी होगी जो पिछले अठ्ठारह वर्षों से
महिला आरक्षण बिल पारित करवाने के लिए जद्दोजहद करते रहे हैं। जल्द ही यह छोटी सी
आशा बेबुनियाद लगने लगी होगी जब माननीय प्रधानमंत्री, श्री नरेन्द्र मोदी, ने 15
अगस्त 2014 को महिलाओं की सुरक्षा को लेकर तो जोरदार भाषण दिया पर
महिला आरक्षण के वादे को बड़ी सरलता से भूल गए।
महिला
आरक्षण विधेयक द्वारा संविधान में संषोधन कर लोकसभा की कुल 543 में
से 181 सीटें
और 28
विधान सभाओं की कुल 4,109 में से 1,370 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित
की जानी हैं। पिछले अठ्ठारह वर्षों का सफर महिला आरक्षण विधेयक के लिए अड़चनों से
भरा रहा। श्री देवे गौड़ा की सरकार ने विधेयक को 12 सितंबर
1996 को लोक सभा में पहली बार पेश किया था। आवश्यक समर्थन नही
मिलने पर इसे सांसद गीता मुखर्जी की
अध्यक्षता में गठित संयुक्त संसदीय समिति को विचारार्थ सौंपा गया। समिति ने 9
दिसंबर 1996 को अपनी रिर्पोट दी।
आरक्षण विधेयक द्वारा संविधान में संषोधन कर लोकसभा की कुल 543 में
से 181 सीटें
और 28
विधान सभाओं की कुल 4,109 में से 1,370 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित
की जानी हैं। पिछले अठ्ठारह वर्षों का सफर महिला आरक्षण विधेयक के लिए अड़चनों से
भरा रहा। श्री देवे गौड़ा की सरकार ने विधेयक को 12 सितंबर
1996 को लोक सभा में पहली बार पेश किया था। आवश्यक समर्थन नही
मिलने पर इसे सांसद गीता मुखर्जी की
अध्यक्षता में गठित संयुक्त संसदीय समिति को विचारार्थ सौंपा गया। समिति ने 9
दिसंबर 1996 को अपनी रिर्पोट दी।
तत्पश्चात
श्री अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इसे 1998 की
बारहवीं लोकसभा व 1999 की तेरहवीं लोकसभा में पेश किया। 2003 में
लोकसभा में दो बार किए गए असफल प्रयासों के बाद 2008 में
विधेयक को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने राज्य सभा में पेश किया जहाँ इसे 9
मार्च 2010 को ऐतहासिक मंजूरी
मिली। विधेयक मई 2014 तक लोकसभा में 108वें संवैधानिक संशोधन
के रूप में लंबित रहा और लोकसभा भंग होने के साथ स्वतः ही रद्द हो गया। अप्रैल 2014 में
भाजपा ने अपने चुनाव घोषणापत्र में कहा था कि वह महिलाओं को 33
प्रतिशत आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध है। इसी आलोक में माननीय राष्ट्रपति महोदय व
प्रधानमंत्री के भाषणों से एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक पर साँप-सीढ़ी का खेल
शुरू हो गया है।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने इसे 1998 की
बारहवीं लोकसभा व 1999 की तेरहवीं लोकसभा में पेश किया। 2003 में
लोकसभा में दो बार किए गए असफल प्रयासों के बाद 2008 में
विधेयक को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने राज्य सभा में पेश किया जहाँ इसे 9
मार्च 2010 को ऐतहासिक मंजूरी
मिली। विधेयक मई 2014 तक लोकसभा में 108वें संवैधानिक संशोधन
के रूप में लंबित रहा और लोकसभा भंग होने के साथ स्वतः ही रद्द हो गया। अप्रैल 2014 में
भाजपा ने अपने चुनाव घोषणापत्र में कहा था कि वह महिलाओं को 33
प्रतिशत आरक्षण देने के लिए प्रतिबद्ध है। इसी आलोक में माननीय राष्ट्रपति महोदय व
प्रधानमंत्री के भाषणों से एक बार फिर महिला आरक्षण विधेयक पर साँप-सीढ़ी का खेल
शुरू हो गया है।
यह
साँप-सीढ़ी का खेल नया नहीं है और तब तक चलता रहेगा जब तक महिलाओं के राजनैतिक
भागीदारी को लेकर राजनैतिक दलों में इच्छाशक्ति की कमी रहेगी। सर्वविदित है
कि सभी राजनैतिक दलों के महत्वपूर्ण
समितियों- प्रदेश कार्याकरिणी, संसदीय बोर्ड, राज्य परिषद्, केन्द्रीय कार्यकारणी, केन्द्रीय परिषद, अनुशासन
समिति आदि- में महिलाओें का प्रतिनिधित्व नगण्य है। पर्याप्त संख्या में महिलाओं
को चुनावी मैदान में उतारने में भी सभी दल कोताही बरतते हैं। बिहार विधान सभा
चुनाव 2010 में सबसे कम राजद ने 6
प्रतिशत महिलाओं को उम्मीदवार बनाया, लोजपा और कांग्रेस ने 8.8
प्रतिशत। लोजपा के बिहार प्रदेश कार्यकारिणी में 2.7
प्रतिशत महिलाएँ हैं, वहीं राजद की कार्यकारिणी में 3.5 प्रतिशत। भाजपा ने केन्द्रीय कार्यकारिणी में 28
प्रतिशत, भाकपा माले ने 9 प्रतिशत, जदयू ने 12.6 प्रतिशत, और कांग्रेस ने 11 प्रतिशत महिलाओं को
जगह ही दी है।
साँप-सीढ़ी का खेल नया नहीं है और तब तक चलता रहेगा जब तक महिलाओं के राजनैतिक
भागीदारी को लेकर राजनैतिक दलों में इच्छाशक्ति की कमी रहेगी। सर्वविदित है
कि सभी राजनैतिक दलों के महत्वपूर्ण
समितियों- प्रदेश कार्याकरिणी, संसदीय बोर्ड, राज्य परिषद्, केन्द्रीय कार्यकारणी, केन्द्रीय परिषद, अनुशासन
समिति आदि- में महिलाओें का प्रतिनिधित्व नगण्य है। पर्याप्त संख्या में महिलाओं
को चुनावी मैदान में उतारने में भी सभी दल कोताही बरतते हैं। बिहार विधान सभा
चुनाव 2010 में सबसे कम राजद ने 6
प्रतिशत महिलाओं को उम्मीदवार बनाया, लोजपा और कांग्रेस ने 8.8
प्रतिशत। लोजपा के बिहार प्रदेश कार्यकारिणी में 2.7
प्रतिशत महिलाएँ हैं, वहीं राजद की कार्यकारिणी में 3.5 प्रतिशत। भाजपा ने केन्द्रीय कार्यकारिणी में 28
प्रतिशत, भाकपा माले ने 9 प्रतिशत, जदयू ने 12.6 प्रतिशत, और कांग्रेस ने 11 प्रतिशत महिलाओं को
जगह ही दी है।
संसद 1995-2009 में महिलाओं का प्रतिनिधित्व
क्रम सं
|
वर्ष
|
लोक सभा
|
राज्य सभा
|
||||||
कुल सीट
|
महिला सदस्य
|
पुरुष सदस्य
|
महिला प्रतिशत
|
कुल सीट
|
महिला सदस्य
|
पुरुष सदस्य
|
महिला प्रतिशत
|
||
1
|
1952
|
499
|
22
|
4.4
|
219
|
16
|
7.3
|
||
2
|
1957
|
500
|
27
|
5.4
|
237
|
18
|
7.5
|
||
3
|
1962
|
503
|
34
|
6.8
|
238
|
18
|
7.6
|
||
4
|
1967
|
523
|
31
|
5.9
|
240
|
20
|
8.3
|
||
5
|
1971
|
521
|
22
|
4.2
|
243
|
17
|
7.0
|
||
6
|
1977
|
544
|
19
|
3.4
|
244
|
25
|
10.2
|
||
7
|
1980
|
544
|
28
|
7.9
|
244
|
24
|
9.8
|
||
8
|
1984
|
544
|
44
|
8.1
|
244
|
28
|
11.4
|
||
9
|
1989
|
517
|
27
|
5.3
|
245
|
24
|
9.7
|
||
10
|
1991
|
544
|
39
|
7.2
|
245
|
38
|
15.5
|
||
11
|
1996
|
543
|
39
|
7.2
|
223
|
20
|
9.0
|
||
12
|
1998
|
543
|
43
|
7.9
|
245
|
15
|
6.1
|
||
13
|
1999
|
543
|
49
|
9.0
|
245
|
19
|
7.8
|
||
14
|
2004
|
545
|
45
|
8.2
|
245
|
28
|
11.4
|
||
15
|
2009
|
545
|
59
|
10.8
|
245
|
21
|
8.57
|
नोट:- CSDS डाटा यूनिट
स्रोत:- 1. भारत मंत्रालय की मानव संसाधन विकास महिलाआ
एवं बाल विकास
एवं बाल विकास
जब पार्टी संगठन में ही महिलाओं के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन, समर्थन और स्थान
नहीं है, जब पार्टियाँ यह मान कर चल रही हैं कि काबिल
महिलाएँ चुनाव नही जीत पाएँगी, केवल वही महिलाएँ जीत सकती हैं जिनके पीछे बाहुबल, धनबल, राजनैतिक विरासत
या फिर किसी व्यक्तिगत त्रासदी की वजह से सहानभूति की लहर हो- तब संसद व विधान
मंडल में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व कैसे दिख सकता है। आज लोक सभा में महिलाओं का
प्रतिनिधित्व सिर्फ 11.43 प्रतिशत है जो अबतक
का सर्वाधिक है। इसके पूर्व लोकसभा में 2009 में 10.82 प्रतिशत, 2004 में 8.16 प्रतिशत और 1999
में 9 प्रतिशत महिलाएँ
ही चुनकर आई थीं। राजनैतिक भागेदारी के दूसरे पहलू यानि देश की सर्वोच्च निर्णायक
भूमिकाओं में भी उनकी संख्या कम दिखाई देती है। 2006 में कैबिनेट
मंत्रियों में केवल 3.45 प्रतिशत महिलाएँ थी, वहीं 2009 में 9.09 फीसद। वर्तमान सरकार की
केन्द्रीय मंत्री परिषद के कुल 45 मंत्रियों में सिर्फ 7 महिलाएँ हैं, यानि 15.55 फीसद। इसी प्रकार राज्य
मंत्रियों में 2006 में 15.38 प्रतिशत महिलाएं थी और 2009 में 11.1 प्रतिशत। महिलाओं
का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व राजनैतिक दलों की समझ का फेर है या उनके नीयत की खोट, यह उन महिलाओं को
तय करना है जो बड़ी संख्या में वोट डालने निकल रही हैं।
नहीं है, जब पार्टियाँ यह मान कर चल रही हैं कि काबिल
महिलाएँ चुनाव नही जीत पाएँगी, केवल वही महिलाएँ जीत सकती हैं जिनके पीछे बाहुबल, धनबल, राजनैतिक विरासत
या फिर किसी व्यक्तिगत त्रासदी की वजह से सहानभूति की लहर हो- तब संसद व विधान
मंडल में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व कैसे दिख सकता है। आज लोक सभा में महिलाओं का
प्रतिनिधित्व सिर्फ 11.43 प्रतिशत है जो अबतक
का सर्वाधिक है। इसके पूर्व लोकसभा में 2009 में 10.82 प्रतिशत, 2004 में 8.16 प्रतिशत और 1999
में 9 प्रतिशत महिलाएँ
ही चुनकर आई थीं। राजनैतिक भागेदारी के दूसरे पहलू यानि देश की सर्वोच्च निर्णायक
भूमिकाओं में भी उनकी संख्या कम दिखाई देती है। 2006 में कैबिनेट
मंत्रियों में केवल 3.45 प्रतिशत महिलाएँ थी, वहीं 2009 में 9.09 फीसद। वर्तमान सरकार की
केन्द्रीय मंत्री परिषद के कुल 45 मंत्रियों में सिर्फ 7 महिलाएँ हैं, यानि 15.55 फीसद। इसी प्रकार राज्य
मंत्रियों में 2006 में 15.38 प्रतिशत महिलाएं थी और 2009 में 11.1 प्रतिशत। महिलाओं
का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व राजनैतिक दलों की समझ का फेर है या उनके नीयत की खोट, यह उन महिलाओं को
तय करना है जो बड़ी संख्या में वोट डालने निकल रही हैं।
2014 के आम चुनाव के दौरान अख़बारों में लगातार रिपोर्ट आते रहे
कि महिलाएं पुरूषों से ज्यादा संख्या में वोट डालने निकल रही हैं। 16 राज्यों में
जिनमें- बिहार भी है- महिला मतदाताओं का प्रतिशत पुरूषों से ज्यादा रहा। अपनी
राजनैतिक भागेदारी को लेकर महिला मतदाताओं में चेतना बढ़ी है। पर शायद ही यह
महिलाओं के लिए दलों के भीतर रूतबा बढ़ा सके। सभी राजनैतिक दलों में महिलाओं का
वोट हासिल करने के लिए महिला प्रकोष्ठ है जो इस परिपे्रक्ष्य में और भी सक्रिय हो
उठेगा। पर जैसे ही महिला प्रत्याशियों को चुनाव में खड़ा करने का सवाल आएगा उग्र
पितृसतात्मक सोच दलों में हावी होने लगेगी। क़ाबिल और जमीन से उभरी महिला नेता
धनबल, बाहुबल और विरासत
की राजनीति के लिए चुनौती हैं। ये वो नेता हैं जो वास्तव में आम महिलाओं की आकांक्षाओं
का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, ना कि उन पतियों, पिताओं आदि रिश्तेदारों की महत्वकांक्षाओं का जो अपनी सीटों
से चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं हैं। यदि इस तरह की जुझारू महिला नेता बड़ी
संख्या में चुनकर आ गयीं तो महिलाओं के मुद्दों पर व उनके हक-अधिकार के लिए काम
करेंगी। महिलाओं की सुरक्षा पर जोशीले भाषण ना देकर ऐसी आर्थिक, राजनैतिक व
सामाजिक नीतियाँ एवं कानून लागू करेंगी जिससे पितृसत्ता के ढाँचे में आमूलचूल
परिवर्तन हो, स्त्री-पुरूष
समानता स्थापित हो। महिलाओं के लिए व्यक्ति, घर,
समाज, और राज्य में
सम्मान बढ़े, महिलाओं के प्रति
इनका रवैया सहयोगी और साकारात्मक हो, और असुरक्षा जड़ से खत्म हो जाए।
कि महिलाएं पुरूषों से ज्यादा संख्या में वोट डालने निकल रही हैं। 16 राज्यों में
जिनमें- बिहार भी है- महिला मतदाताओं का प्रतिशत पुरूषों से ज्यादा रहा। अपनी
राजनैतिक भागेदारी को लेकर महिला मतदाताओं में चेतना बढ़ी है। पर शायद ही यह
महिलाओं के लिए दलों के भीतर रूतबा बढ़ा सके। सभी राजनैतिक दलों में महिलाओं का
वोट हासिल करने के लिए महिला प्रकोष्ठ है जो इस परिपे्रक्ष्य में और भी सक्रिय हो
उठेगा। पर जैसे ही महिला प्रत्याशियों को चुनाव में खड़ा करने का सवाल आएगा उग्र
पितृसतात्मक सोच दलों में हावी होने लगेगी। क़ाबिल और जमीन से उभरी महिला नेता
धनबल, बाहुबल और विरासत
की राजनीति के लिए चुनौती हैं। ये वो नेता हैं जो वास्तव में आम महिलाओं की आकांक्षाओं
का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, ना कि उन पतियों, पिताओं आदि रिश्तेदारों की महत्वकांक्षाओं का जो अपनी सीटों
से चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं हैं। यदि इस तरह की जुझारू महिला नेता बड़ी
संख्या में चुनकर आ गयीं तो महिलाओं के मुद्दों पर व उनके हक-अधिकार के लिए काम
करेंगी। महिलाओं की सुरक्षा पर जोशीले भाषण ना देकर ऐसी आर्थिक, राजनैतिक व
सामाजिक नीतियाँ एवं कानून लागू करेंगी जिससे पितृसत्ता के ढाँचे में आमूलचूल
परिवर्तन हो, स्त्री-पुरूष
समानता स्थापित हो। महिलाओं के लिए व्यक्ति, घर,
समाज, और राज्य में
सम्मान बढ़े, महिलाओं के प्रति
इनका रवैया सहयोगी और साकारात्मक हो, और असुरक्षा जड़ से खत्म हो जाए।
हो सकता है कि आज के ज्यादातर विधायकों और सांसदों को ऐसी
महिलाओं के चुनकर आने से परहेज हो और राजनैतिक दल सिर्फ चुनावी घोषणापत्र में ही
महिला आरक्षण की बात करते रह जाएँ। वर्तमान में, बिहार की 34 महिला विधायकों
में बड़ी संख्या ऐसी महिलाओं की हैं जिनके पति खुद चुनाव लड़ने की पात्रता खो चुके
थे इसलिए पत्नियों को उनकी नैया पार लगाने की जरूरत पड़ी। ऐसी भी महिला विधायक है
जिन्हे चुनाव जीत चुके पुरूष अपने दायरे का विस्तार करने के लिए आगे बढा रहे हैं ।
ये महिला विधायक महिलाओं के मुद्दों से इतफाक तो दूर, कई बार उनकी जानकारी
तक नही रखतीं। महिला उत्पीड़न की बड़ी से बड़ी घटना पर भी उनका वक्तव्य नहीं आता, किसी प्रकार की
कार्यवाई कैसे करेंगी।
महिलाओं के चुनकर आने से परहेज हो और राजनैतिक दल सिर्फ चुनावी घोषणापत्र में ही
महिला आरक्षण की बात करते रह जाएँ। वर्तमान में, बिहार की 34 महिला विधायकों
में बड़ी संख्या ऐसी महिलाओं की हैं जिनके पति खुद चुनाव लड़ने की पात्रता खो चुके
थे इसलिए पत्नियों को उनकी नैया पार लगाने की जरूरत पड़ी। ऐसी भी महिला विधायक है
जिन्हे चुनाव जीत चुके पुरूष अपने दायरे का विस्तार करने के लिए आगे बढा रहे हैं ।
ये महिला विधायक महिलाओं के मुद्दों से इतफाक तो दूर, कई बार उनकी जानकारी
तक नही रखतीं। महिला उत्पीड़न की बड़ी से बड़ी घटना पर भी उनका वक्तव्य नहीं आता, किसी प्रकार की
कार्यवाई कैसे करेंगी।
उल्लेखनीय है कि 2010 में राज्यसभा में महिला
आरक्षण विधेयक पारित होने का प्रसंग भी नाटकीयता से भरपूर रहा। विधेयक पर चर्चा
तभी हो पाई थी जब उपद्रवी सांसदों को मार्शल की मदद से उठाकर बाहर कर दिया गया।
राज्य सभा ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता
दल व जनता दल यूनाईटेड के सात सांसदों को उनकी उद्दंडता के लिए बजट सत्र के बचे
कार्यकाल के लिए निलंबित कर दिया। विधेयक को संप्रग के बाकी घटक दल, भारतीय जनता
पार्टी, अन्नाद्रमुक, तेलगुदेशम पार्टी
और वाम दलों का समर्थन मिला। पर तृणमूल कांग्रेस ने संप्रग सरकार का घटक दल होकर
भी मतदान में भाग नहीं लिया। जनता दल यूनाईटेड संप्रग के अध्यक्ष को विधेयक पेश
नहीं करने के लिए राजी करने की कोशिश करता रहा। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता
दल ने संप्रग सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी। बसपा के सांसद वाकआउट कर गए
क्योंकि उनको विधेयक के मौजूदा प्रारूप से विरोध था।
आरक्षण विधेयक पारित होने का प्रसंग भी नाटकीयता से भरपूर रहा। विधेयक पर चर्चा
तभी हो पाई थी जब उपद्रवी सांसदों को मार्शल की मदद से उठाकर बाहर कर दिया गया।
राज्य सभा ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता
दल व जनता दल यूनाईटेड के सात सांसदों को उनकी उद्दंडता के लिए बजट सत्र के बचे
कार्यकाल के लिए निलंबित कर दिया। विधेयक को संप्रग के बाकी घटक दल, भारतीय जनता
पार्टी, अन्नाद्रमुक, तेलगुदेशम पार्टी
और वाम दलों का समर्थन मिला। पर तृणमूल कांग्रेस ने संप्रग सरकार का घटक दल होकर
भी मतदान में भाग नहीं लिया। जनता दल यूनाईटेड संप्रग के अध्यक्ष को विधेयक पेश
नहीं करने के लिए राजी करने की कोशिश करता रहा। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता
दल ने संप्रग सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दी। बसपा के सांसद वाकआउट कर गए
क्योंकि उनको विधेयक के मौजूदा प्रारूप से विरोध था।
विधेयक के विरूद्ध दलीलों में कुछ ही तार्किक हैं बाकि खुले
तौर पर उग्र पितृसत्तात्मक उदृगार। 1 जून 1997 में जनता दल यूनाईटेड के श्री शरद यादव ने
पूछा था कि क्या ये परकटी औरतें (महिला सांसद) हमारी औरतों के लिए बोल सकती हैं।
संसद में 6 मई 2008 को सुश्री रेणुका चैधरी (महिला एवं बाल विकास मंत्री) ने
विधि मंत्री, श्री भारद्वाज, को अबु आजमी से
पिटने से बचाया। 13 जुलाई 1998 को राजद के सांसद श्री सुरेन्द्र प्रसाद यादव ने लोक सभा
स्पीकर, श्री बालयोगी, से विधेयक की
प्रति छीनकर फाड़ दी थी । 2005 में भारतीय जनता पार्टी के पूर्व समर्थन के
बावजूद जब सुश्री उमा भारती और अन्य भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने महिलाओं के
कोटा में जातिगत कोटा की माँग की तब भारतीय जनता पार्टी भी चुप बैठ गई ।
तौर पर उग्र पितृसत्तात्मक उदृगार। 1 जून 1997 में जनता दल यूनाईटेड के श्री शरद यादव ने
पूछा था कि क्या ये परकटी औरतें (महिला सांसद) हमारी औरतों के लिए बोल सकती हैं।
संसद में 6 मई 2008 को सुश्री रेणुका चैधरी (महिला एवं बाल विकास मंत्री) ने
विधि मंत्री, श्री भारद्वाज, को अबु आजमी से
पिटने से बचाया। 13 जुलाई 1998 को राजद के सांसद श्री सुरेन्द्र प्रसाद यादव ने लोक सभा
स्पीकर, श्री बालयोगी, से विधेयक की
प्रति छीनकर फाड़ दी थी । 2005 में भारतीय जनता पार्टी के पूर्व समर्थन के
बावजूद जब सुश्री उमा भारती और अन्य भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने महिलाओं के
कोटा में जातिगत कोटा की माँग की तब भारतीय जनता पार्टी भी चुप बैठ गई ।
इस पृष्ठभूमि में सभी राजनैतिक दलों की सहमति बनाकर महिला
आरक्षण विधेयक पास करने की कोशिशें बेमानी सिद्ध होती रहेंगी। सर्वसम्मति बनाने के
कई फ़ॉर्मूले लगातार नाकामयाब होते रहे हैं। दो सदस्यीय चुनाव क्षेत्र, महिला
उम्मीदवारों को हर पार्टी में ही आरक्षण मिले जैसी कई धारर्णाएं आयीं और गईं।
महिला आरक्षण बिल के वर्तमान स्वरूप के विरोध में जमीनी हकीकत से जुड़ा एकमात्र
विचारनीय विवाद है महिलाओं के लिए आरक्षण के अन्दर जातिगत आरक्षण ताकि अन्य पिछड़ा
वर्ग, अनुसूचित जाति व
जनजाति की महिलाओं को भी राजनैतिक नेतृत्व के वही अवसर मिले जो उच्च वर्ग व जाति
की महिलाओं को आरक्षण से मिलेंगे। सही अर्थों में अब यह भी विवाद का विषय नहीं रह
गया है क्योंकि पंचायतों में कोटा के भीतर कोटा केा लेकर पिछले पन्द्रह वर्षों से
कामयाब फार्मूला स्थापित किया जा चुका है । इसी फ़ॉर्मूले को विधान सभा और संसद के
लिए लागू कर देना सबसे सरल उपाय है।
आरक्षण विधेयक पास करने की कोशिशें बेमानी सिद्ध होती रहेंगी। सर्वसम्मति बनाने के
कई फ़ॉर्मूले लगातार नाकामयाब होते रहे हैं। दो सदस्यीय चुनाव क्षेत्र, महिला
उम्मीदवारों को हर पार्टी में ही आरक्षण मिले जैसी कई धारर्णाएं आयीं और गईं।
महिला आरक्षण बिल के वर्तमान स्वरूप के विरोध में जमीनी हकीकत से जुड़ा एकमात्र
विचारनीय विवाद है महिलाओं के लिए आरक्षण के अन्दर जातिगत आरक्षण ताकि अन्य पिछड़ा
वर्ग, अनुसूचित जाति व
जनजाति की महिलाओं को भी राजनैतिक नेतृत्व के वही अवसर मिले जो उच्च वर्ग व जाति
की महिलाओं को आरक्षण से मिलेंगे। सही अर्थों में अब यह भी विवाद का विषय नहीं रह
गया है क्योंकि पंचायतों में कोटा के भीतर कोटा केा लेकर पिछले पन्द्रह वर्षों से
कामयाब फार्मूला स्थापित किया जा चुका है । इसी फ़ॉर्मूले को विधान सभा और संसद के
लिए लागू कर देना सबसे सरल उपाय है।
जब यह मालूम है कि कमोबेशी सभी राजनेता महिला आरक्षण को
लेकर उदासीन हैं तो वह कौन सी ताकत है जो उनको विधेयक पारित करने को मजबूर करे।
यहीं पर एहसास होता है कि महिला आंदोलन कितनी कमज़ोर कर हाशिये पर धकेली जा चुकी हैं
। कुछ बिखरे हुए प्रयास महिला संगठन व नारिवादी लगातार करते आ रहे हैं पर ताकत
पुरजोर नहीं दिखती। कई नारिवादी यह प्रश्न भी उठाते रहे हैं कि 33 प्रतिशत की सीमा किस आधार पर तय की गई है और
किसने की है। जब महिलाएं देश की आधी आबादी हैं तो आरक्षण 50 प्रतिशत क्यूं नहीं
? यदि राजनैतिक
इच्छा शक्ति हो या जनान्दोलन में ताकत हो तो 50 प्रतिशत के लिए
संविधान में जरूरत मुताबिक संशोधन को कौन रोक सकेगा? नागरिक समाज, महिला संगठन व नारीवादियों को हतोत्साहित होने
की नहीं, बल्कि नए सिरे से
संगठित और संयुक्त प्रयास करने की जरूरत है । आज हमारे पास अनुकूल परिस्थितियाँ भी
हैं।
लेकर उदासीन हैं तो वह कौन सी ताकत है जो उनको विधेयक पारित करने को मजबूर करे।
यहीं पर एहसास होता है कि महिला आंदोलन कितनी कमज़ोर कर हाशिये पर धकेली जा चुकी हैं
। कुछ बिखरे हुए प्रयास महिला संगठन व नारिवादी लगातार करते आ रहे हैं पर ताकत
पुरजोर नहीं दिखती। कई नारिवादी यह प्रश्न भी उठाते रहे हैं कि 33 प्रतिशत की सीमा किस आधार पर तय की गई है और
किसने की है। जब महिलाएं देश की आधी आबादी हैं तो आरक्षण 50 प्रतिशत क्यूं नहीं
? यदि राजनैतिक
इच्छा शक्ति हो या जनान्दोलन में ताकत हो तो 50 प्रतिशत के लिए
संविधान में जरूरत मुताबिक संशोधन को कौन रोक सकेगा? नागरिक समाज, महिला संगठन व नारीवादियों को हतोत्साहित होने
की नहीं, बल्कि नए सिरे से
संगठित और संयुक्त प्रयास करने की जरूरत है । आज हमारे पास अनुकूल परिस्थितियाँ भी
हैं।
नंबर एक कि पंचायत में चुनकर आ रही महिलाएं ना सिर्फ कई
मोर्चे पर अपनी काबलियत सिद्ध करने में सफल रही हैं बल्कि उन्होंने जमीनी स्तर पर
महिलाओं के नेतृत्व को सामाजिक स्वीकृति भी दिलानी शुरू कर दी है। आश्चर्य नहीं कि
बिहार में पंचायती राज में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है पर 1999-2009 के बीच यहाँ
पंचायतों में 54.12 प्रतिशत महिलाएँ चुनकर आईं – यानि आरक्षित सीटों से भी ज्यादा।
बिहार में यह अपवाद नहीं,
बार-बार हो रहा
है। इन कर्मठ महिलाओं की राजनैतिक महत्वकांक्षा धीरे-धीरे बुलंद होगी और आशा है कि
पितृसत्तामक सोच की गुलाम नहीं रहेगी। ये भी आगे चलकर विधानसभा और संसद में अपनी
पैठ बनाना चाहेंगी। याद रहे कि इन महिलाओं में हर धर्म, जाति और वर्ग की
महिलाएं हैं जो कि सामाजिक-राजनैतिक सता के विकेन्द्रीकरण में भी सहायक होगा।
मोर्चे पर अपनी काबलियत सिद्ध करने में सफल रही हैं बल्कि उन्होंने जमीनी स्तर पर
महिलाओं के नेतृत्व को सामाजिक स्वीकृति भी दिलानी शुरू कर दी है। आश्चर्य नहीं कि
बिहार में पंचायती राज में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण है पर 1999-2009 के बीच यहाँ
पंचायतों में 54.12 प्रतिशत महिलाएँ चुनकर आईं – यानि आरक्षित सीटों से भी ज्यादा।
बिहार में यह अपवाद नहीं,
बार-बार हो रहा
है। इन कर्मठ महिलाओं की राजनैतिक महत्वकांक्षा धीरे-धीरे बुलंद होगी और आशा है कि
पितृसत्तामक सोच की गुलाम नहीं रहेगी। ये भी आगे चलकर विधानसभा और संसद में अपनी
पैठ बनाना चाहेंगी। याद रहे कि इन महिलाओं में हर धर्म, जाति और वर्ग की
महिलाएं हैं जो कि सामाजिक-राजनैतिक सता के विकेन्द्रीकरण में भी सहायक होगा।
दुसरा अनुकूल तथ्य है महिलाओं के वोटों की बढती संख्या। यह
तो वक्त ही बताएगा की महिला प्रत्याशी इन वोटों पर कब्जा कर पाएंगी कि नहीं। महिला
संगठनों और महिला आंदोलन के प्रयासों से यह वोट उन महिला प्रत्याशियों को मिल सकता
है जिन्हें उन संगठनों का समर्थन प्राप्त हो। भारतीय राजनीति के पितृसतात्मक-वंशवादी
चरित्र, जहाँ धनबल और बाहुबल
का बोलबाला है, वहाँ कई स्तरों
पर अनुकूल सामाजिक परिस्थितियाँ तैयार करने की जरूरत है ताकि महिलाएँ भारतीय
जनतंत्र में वोटर के साथ-साथ लीडर के रूप में भी सशक्त हों । महिलाओं के राजनैतिक
भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में आरक्षण एक अनिवार्य कदम है। हमें अब यह देखना
है कि पूर्ण बहुमत से आई वर्तमान सरकार महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण
देकर उनकी कसौटी पर खरा उतरती है या नहीं। इससे यह भी पता चलेगा कि वह महिला सशक्तिकरण
के प्रति व्यापक व गहरी सोच रखती है या उनको सुरक्षा-असुरक्षा के मायाजाल में
उलझाए रखना चाहती है।
तो वक्त ही बताएगा की महिला प्रत्याशी इन वोटों पर कब्जा कर पाएंगी कि नहीं। महिला
संगठनों और महिला आंदोलन के प्रयासों से यह वोट उन महिला प्रत्याशियों को मिल सकता
है जिन्हें उन संगठनों का समर्थन प्राप्त हो। भारतीय राजनीति के पितृसतात्मक-वंशवादी
चरित्र, जहाँ धनबल और बाहुबल
का बोलबाला है, वहाँ कई स्तरों
पर अनुकूल सामाजिक परिस्थितियाँ तैयार करने की जरूरत है ताकि महिलाएँ भारतीय
जनतंत्र में वोटर के साथ-साथ लीडर के रूप में भी सशक्त हों । महिलाओं के राजनैतिक
भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में आरक्षण एक अनिवार्य कदम है। हमें अब यह देखना
है कि पूर्ण बहुमत से आई वर्तमान सरकार महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण
देकर उनकी कसौटी पर खरा उतरती है या नहीं। इससे यह भी पता चलेगा कि वह महिला सशक्तिकरण
के प्रति व्यापक व गहरी सोच रखती है या उनको सुरक्षा-असुरक्षा के मायाजाल में
उलझाए रखना चाहती है।