बीते 20 अगस्त को मध्यप्रदेश के मैहर स्थित रिलायंस सीमेंट फैक्ट्री में रोज की तरह मजदूर काम कर रहे थे। दोपहर करीब दो बजे साइलो के अंदर अचानक सीमेंट वॉल्ब खुल गया,जिससे बड़े पैमाने पर सीमेंट नीचे आ गई। सीमेंट के नीचे बड़ी संख्या में मजदूर दब गए, हादसे में दर्जन भर मजदूर घायल हो गये, चार मजदूरों की हालत गंभीर बताई गयी, हादसे के बाद घायलों को तत्काल मैहर अस्पातल पहुंचाया गया लेकिन इस घटना की सूचना थाना को नहीं दी गई। इस पूरे मामले में कंपनी की लापरवाही साफ तौर पर सामने आ रही है। साइलो के अंदर सीमेंट वॉल्ब खुलना गंभीर मामला है। दूसरी तरफ नियमों के अनुसार किसी भी बड़ी कंपनी में एक डॉक्टर 24 घंटे उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन रिलायंस सीमेंट में कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं था। इस दौरान यह बात भी सामने आई है कि हादसे के दौरान जो मजदूर वहां काम कर रहे थे वे रिलायंस के नहीं बल्कि ठेका कंपनी के मजदूर थे। क्योंकि रिलायंस ने हर काम ठेके पर दे रखा था, ठेका मजदूर होने के कारण रिलायंस सीधी तौर पर अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहती है। जाहिर तौर यह पूरा मामला एक कंपनी मजदूरों के ठेकेदारी के मार्फ़त कम मजदूरी देकर अधिक काम कराए जाने और कार्यस्थल पर मजदूरों के लिए जरूरी सुविधायें और सुरक्षा न उपलब्ध कराये जाने का है ।
केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित बदलाव
रिलायंस सीमेंट फैक्ट्री जैसे असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे मजदूरों के लिए श्रम कानून पहले ही बेमानी हो चुके है। लेकिन “अच्छे दिनों’’ के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी-सरकार के राज में तो संगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत भी बदतर होने वाली है, सरकार ने श्रम-कानूनों में बदलाव को अपनी पहली प्राथमिकताओं में रखा और केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फैक्टरी कानून, एप्रेंटिस कानून और श्रम कानून (कुछ प्रतिष्ठानों को रिटर्न भरने और रजिस्टर रखने से छूट) कानून में संशोधन को मंजूरी दे दिया है, साथ ही साथ केंद्र सरकार ने लोकसभा के इस सत्र में कारखाना (संशोधन) विधेयक, 2014 भी पेश किया है, इस पूरी कवायद के पीछे तर्क है इन ‘सुधारों’’ से निवेश और रोजगार बढेंगे। पहले कारखाना अधिनियम, जहाँ 10 कर्मचारी बिजली की मदद से और 20 कर्मचारी बिना बिजली से चलने वाले संस्थानों पर लागू होता था वहीँ संसोधन के बाद यह क्रमशः 20 और 40 मजदूर वाले संस्थानों पर लागू होगा। ओवर टाइम की सीमा को भी 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे कर दिया गया है और वेतन सहित वार्षिक अवकाश की पात्रता को 240 दिनों से घटाकर 90 दिन कर दिया है। ठेका मजदूर कानून अब बीस की जगह पचास श्रमिकों पर लागू होगा। औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्राविधानों के तहत अब कारखाना प्रबंधन को तीन सौ कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी, पहले यह सीमा सौ मजदूरों की थी। अप्रेंटिसशिप एक्ट, 1961 में भी बदलाव किया गया है, अब अप्रेंटिसशिप एक्ट न लागू करने वाले फैक्ट्री मालिकों को गिरफ्तार या जेल में नहीं डाला जा सकेगा। यही नहीं कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं। स्पष्ट है कि तथाकथित “सुधार” मजदूर हितों के खिलाफ हैं। इससे मजदूरों को पहले से मिलने वाली सुविधाओं में कानूनी तौर कमी आएगी।
राजस्थान सरकार द्वारा बदलाव के विधेयक पारित
इस मामले में तो राजस्थान सरकार केंद्र सरकार से भी आगे निकल गई है, राजस्थान सरकार ने राजस्थान विधानसभा में औद्योगिक विवाद (राजस्थान संशोधन) विधेयक 2014, ठेका श्रम (विनियमन और उत्पादन) राजस्थान संशोधन विधेयक, कारखाना (राजस्थान संशोधन) विधेयक और प्रशिक्षु अधिनियम रखा था जो की पारित भी हो गया। औद्योगिक विवाद अधिनियम में बदलाव के बाद अब मजदूरों की छंटनी और कारखाना बंदी के लिये 100 के स्थान 300 कर्मचारियों तक के कारखानो को ही सरकार की अनुमति की बाध्यता रह गई है, जाहिर तौर पर इससे बडी संख्या में कारखानों को छंटनी करने या बनावटी रूप में कारखाना बंदी करने की छूट मिल जायेगी क्योंकि वे अपने अपने रिकॉर्ड में स्थाई श्रमिको की संख्या 299 तक ही बतायेंगे और बाकी श्रमिको को ठेका मजदूर के रूप में बतायेंगे। इसी तरह से ठेका मज़दूर क़ानून भी अब मौजुदा 20 श्रमिकों के स्थान पर 50 कर्मचारियों पर लागू होगा। पहले किसी भी कारखाने में किसी यूनियन के रूप में मान्यता के लिए 15 प्रतिशत सदस्य संख्या जरूरी थी लेकिन इसे बढ़ाकर 30 प्रतिशत कर दिया गया है, इसका अर्थ यह होगा कि मजदूरों के लिए अब यूनियन बनाकर मान्यता प्राप्त करना मुश्किल हो गया है, इससे नियोजको को यह अवसर मिलेगा कि वे अपनी पंसदीदा यूनियनो को ही बढावा दे।
कारखाना अधिनियम में बदलाव के बाद कारखाने की परिभाषा में बिजली के उपयोग से चलने वाले वही कारखाने आयेंगे जहाँ 20 श्रमिक काम करते हो पहले यह संख्या 10 थी। इसी तरह से बिना बिजली के उपयोग से चलने वाले वाले 20 के स्थान पर 40 श्रमिको की संख्या वाले कारखाने ही इसके दायरे में आयेंगें। इसका मतलब यह होगा कि अब और बड़ी संख्या में श्रमिको को श्रम कानूनो से मिलने वाले फायदे जैसे सफाई, पीने का पानी, सुरक्षा, बाल श्रमिको का नियोजन, काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश, छुट्टियां, मातृत्व अवकाश, ओवरटाईम आदि से महरूम होने वाले हैं।
कुल मिलकर यह संशोधन श्रमिको के अधिकारों को कमजोर करने वाले हैं। शायद इसका मकसद नियोक्ताओं व कॉरपोरेट घरानों को बिना किसी जिम्मेवारी व जवाबदेही के आसानी से अनाप–शनाप मुनाफे कमाने के लिए रास्ता खोलना है। हालाँकि राजस्थान सरकार द्वारा पारित संशोधन विधेयक राज्य में लागु राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद ही होंगे I
सरमायेदारों की पैरोकार मोदी सरकार
मोदी सरकार का सरमायेदारों (कार्पोरेट) ने जोरदार स्वागत किया था, इस सरकार से उन्हें बड़ी उम्मीदें हैं, उनके विचारक और पैरोकार बहुत शिद्दत से “आर्थिक विकास” सुनिश्चित करने के लिए “कारोबारी प्रतिकूलताएं” दूर करने की वकालत कर रहे हैं, जिसमें तेजी से आर्थिक एवं कारोबार संबंधी नीतिगत फैसले लेने, सब्सिडी या आर्थिक पुनर्वितरण की नीतियों को सही तरीके से लागू करने की दिशा में कदम उठाने, बुनियादी क्षेत्र में निवेश आदि बातें शामिल हैं। मोदी के विजय के बाद भारत में पूँजीवाद के मुखर चिन्तक गुरचरन दास ने उत्साहित होकर लिखा था कि “मोदी की जीत के बाद से देश दक्षिणपंथी विचारधारा की तरफ नहीं वरन आर्थिक स्तर पर यह दाहिनी ओर झुक गया है”। श्रम कानूनों में बदलाव की शुरुवात के बाद कॉरपोरेट जगत के हितेषी संतुष्टि प्रकट करते हुए कह रहे हैं कि मोदी ‘छोटी सरकार, बड़ा शासन’ का वादा बहुत अच्छे से निभा रहे हैं, “इन सुधारों से हमारे आधे कारखानों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और बिज़नेस करना आसान हो जाएगा”।
आखिर कोई वजह तो रही होगी कि एक ज़माने में पूंजीपतियों की चहेती कांग्रेस पार्टी, उनके नज़रों से उतर गयी और उसकी जगह बीजेपी ने ले लिया। यही नहीं भारत में नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के पोस्टर पुरुष रहे मनमोहन सिंह की चमक भी फीकी पड़ गयी ,उन्हें एक तरह से नाकारा मान लिया गया और उनकी जगह मोदी की नए पोस्टर पुरुष के रूप में नियुक्ति कर दी गयी है। इसके जवाब के लिए हमें पांच साल पीछे जाना पड़ेगा जब देश के बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाने की तैयारी पूर्व शुरू कर दी थी। जिस स्तर का मोदी का चुनाव अभियान था वह कॉरपोरेट के मदद की बिना संभव ही नहीं हो सकता था। 2014 का आम चुनाव सही मायने में देश का पहला कार्पोरेट चुनाव था।
गौरतलब है कि साल 2009 के ‘वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मेलन में भारती समूह के प्रमुख सुनील मित्तल ने कहा था कि ‘मोदी को सी.इ.ओ. कहा जाता है, लेकिन असल में वे सी.इ.ओ. नहीं हैं, क्योंकि वे कोई कंपनी या क्षेत्र का संचालन नहीं करते हैं। वे एक राज्य चला रहे हैं और देश भी चला सकते हैं।’ इसी सम्मेलन में अनिल अंबानी ने भी मित्तल के हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा था कि ‘नरेंद्र मोदी ने गुजरात में बहुत अच्छा काम किया है और आप कल्पना कीजिए कि अगर वे देश का नेतृत्व करेंगे तो कितना कुछ हो जाएगा।’ रतन टाटा ने भी कहा था कि ‘मोदी की अगुआई में गुजरात दूसरे सभी राज्यों से अग्रणी है। सामान्य तौर पर किसी प्लांट को मंजूरी मिलने में नब्बे से एक सौ अस्सी दिन तक समय लगता है, लेकिन ‘नेनो’ प्लांट के संबंध में हमें सिर्फ दो दिन में जमीन और स्वीकृति मिल गई। विदेशी उद्योगपतियों के संगठनों द्वारा भी इसी तरह की बातें कही गयी थीं।
मोदी शायद इन्हीं उम्मीदों पर खरे उतरने की कोशिश कर रहे हैं तभी तो उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में लाल किले से अपने पहले संबोधन में पूरी दुनिया को “कम,मेक इन इंडिया” का आमंत्रण दिया है। वे भारत को एक ऐसे बाज़ार के तौर पर पेश कर रहे थे जहाँ सस्ते मजदूर और कौड़ियों के दाम जमीन उपलब्ध हैं। अब तो श्रम कानून को दंतहीन बनाने की शुरआत भी हो चुकी है। श्रम कानूनों में बदलाव के पीछे मोदी सरकार का तर्क भी यही है कि इनमें सुधार किए बिना देश में बड़े विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित नहीं किया जा सकता है, इसके अलावा इसके पीछे मैन्यूफैक्चरिंग की धीमी रफ्तार को तोड़ने, रोजगार के नए अवसर सृजन का तर्क भी दिया जा रहा है। दबे जुबान से यह भी कहा जा रहा है कि मजदूर संगठन श्रम कानूनों का इस्तेमाल निवेशकों को प्रताडि़त करने के लिए करते हैं। इसके पीछे मारुति, हीरो होंडा, कोलकाता की जूट मिल कंपनियों की बंदी से उत्पन्न संघर्ष का उदाहरण दिया जा रहा है।
ऐसे में यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि मोदी सरकार के लिए मजदूरों के हितों की जगह देशी, विदेशी पूंजी निवेश ज्यादा महत्वपूर्ण है। श्रम कानूनों में सुधार का फायदा किसी भी कीमत पर मुनाफा कूटने में लगी रहने वाली देशी-विदेशी कंपनियों को ही मिलेगा, मजदूरों को पहले से जो थोड़ी बहुत आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा मिली थी उन्हें भी छीना जा रहा है। यह कहना भ्रामक है कि मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में धीमी गति और नए रोजगार सृजन में श्रम कानून बाधक हैं। श्रम कानून तो इसलिए बनाये गये थे कि सरमायेदारों की बिरादरी अपने मुनाफे के लिए मजदूरों के इंसान होने के न्यूतम अधिकार की अवहेलना न कर सकें। धीमी मैन्यूफैक्चरिंग और बेरोजगारी की समस्या तो पूंजीवादी सिस्टम की देन है। वाकई में अच्छे दिन आ गये हैं लकिन गरीब -मजदूरों के नहीं बल्कि देशी–विदेशी सरमायेदारों के।
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संपर्क – anisjaved@gmail.com
factory act 1947 me bana tha .aaj isme badlav jaroori h .aaj k jamane me labour malik ko blackmail karte h .bina bataye kam chhodkar doosri jagah chale jate h . permanent labour b bolta h paise badhoa nahi to samajh lena. 15-20- din ki chutti bina bataye karte h aur malik 2 din ki chutti kare to pura paisa chahiye. sirf labour acsident case me majboot niyam labour hit me hona chahiye.kai jagah labour malik se jyada kamate h . jamana badal gaya h bhai
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It's a very good initiative.