नेसार अहमद
पिछले 30 वर्षो में पहली बार लोकसभा में पुर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा सरकार को संसद के भीतर और बाहर भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर मुंह की खानी पड़ी। सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने 2013 में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा पारित भूमि अधिग्रहण, पुनःस्थापन एवं पुनर्वास में उचित मुआवज़ा तथा पारदर्शिता का अधिकार कानून 2013 को देश की आर्थिक विकास में सब से बड़ी रूकावट मानते हुए इसे बदलने के लिये एक अध्यादेश जारी किया था। इस अध्यादेश के द्वारा केन्द्र द्वारा पिछले वर्ष ही पारित इस कानून के सभी महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटा दिया गया। परन्तु अध्यादेश तो 6 माह के लिये ही होता है और इसे स्थाई बनाने के लिये संसद में पास करवाना होता है।
सरकार ने इस अध्यादेश को लोकसभा में तो पास करवा लिया परन्तु राज्य सभा में, जहां भाजपा के पास बहुमत नहीं है, यह संशोधन विधेयक पास नहीं हो सका तो सरकार ने इसे राज्य सभा की सर्वदलीय समिति के पास विचार के लिये भेज दिया। जब तक राज्य सभा की समिति इन संशोधनों पर विचार कर रही थी, केन्द्र सरकार अध्यादेश को जारी रखने के लिये छः माह पर पुनः जारी करती रही। परन्तु अब प्रधान मंत्री ने अपने रेडियो संवाद ‘मन की बात’ में बताया कि इस अध्यादेश को अब और आगे नहीं बढ़ाया जायेगा। इसका अर्थ यह है कि 2013 का कानून ज्यों का त्यों दूबारा लागू हो गया है।
तो क्या था ऐसा 2013 के कानून में जिसे केन्द्र सरकार बदलना चाहती थी तथा वर्ष 2013 तक किन कानूनों के तहत भूमि अधिग्रहण होता था।
वर्ष 2013 में नये कानून के आने से पहले, सरकार अंग्रेजों द्वारा बनाये गये भूमि अधिग्रहण कानून 1894 का उपयोग कर विकास कार्यों या ‘सार्वजनिक हित’ के नाम पर लोगों की निजी भूमि का अधिग्रहण किया करती थी। इसके अलावा भी कई ऐसे कानून हैं, जिनसे विशेष क्षेत्रों जैसे कोयला खनन, सड़क, रेल, आदि के लिये भूमि अधिग्रहण किया जाता है। ये सभी कानून निजी भूमि अधिग्रहण के लिये भूमि मालिक को मात्र बाज़ार दर पर मुआवज़ा देने का ही प्रावधान करते हैं। इन कानूनों में भूमि अधिग्रहण से विस्थापित हुुए या प्रभावित हुए लोगों के पुनर्वास का काई प्रावधान नहीं है।
परन्तु भूमि अधिग्रहण से लोगों की केवल ज़मीन नहीं जाती बल्कि उनकी आजीविका का मुख्य आधार भी छिन जाता है – मुख्य रूप से छोटे किसानों, आदिवासीयों, दलितों और महिलाओं का। बहुत बार ऐसा होता है कि बड़ी संख्या में परिवारों कोे अपने घरों व गावों से हटना पड़ता है। यही नहीं विकास परियोजनाएं निजी भूमि का अधिग्रहण करने के अलावा जंगल, चारागाह, विभिन्न प्रकार की सरकारी जमीनों का भी अधिग्रहण करती हैं जिससे इन पर निर्भर भूमिहीन परिवार, आदिवासी दलित, महिलाएं आदि भी प्रभावित होते हैं।
‘सार्वजनिक हित’ बनाम निजी मुनाफ़ा
पिछले वर्षों में देश में भूमि अधिग्रहण का मामला काफी पेचीदा हो गया है। सरकार न केवल बुनियादी ढांचे, सड़कें, बांध तथा सरकारी कंपनियों द्वारा खनन के लिए भूमि अधिग्रहित करती है बल्कि निजी कंपनियों द्वारा खनन, उद्योग तथा रीयल स्टेट, बुनियादी ढांचा विकास आदि के लिए भी जमीन अधिग्रहित करती रही है। सरकार द्वारा किसानों की निजी भूमि का अधिग्रहण ‘सार्वजनिक हित’ के नाम पर किया जाता है। परंतु निजी सार्वजनिक भागीदारी के इस उदार समय में सार्वजनिक एवं निजी हित गड्डमड्ड हो गये हैं।
उदारीकरण से पहले की स्थिति में सरकार द्वारा देश के विकास के लिए उद्योग लगाने, खनन करने, बांध बनाने आदि के लिए जमीन का अधिग्रहण किया जाता था, जिसे आमतौर पर सार्वजनिक हित में मान लिया जाता था। हालांकि विरोध तब भी होते थे तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा पर बन रहे बांधों से होने वाले विनाश का हवाला देते हुए बांधों के विरोध के साथ-साथ विकास की पूरी अवधारणा को नये सिरे से समझने पर जोर दिया। परंतु अब आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में निजी कंपनियां, जिनका उद्देश्य केवल मुनाफा कमाना है, खनन से लेकर उद्योग लगाने तक ही नहीं बल्कि बांध, सड़क (6-8 लेन उच्च राजमार्ग), से लेकर निजी विश्वविद्यालय खोलने तथा पांच सितारा अस्पताल चलाने में भी लग गयी हैं। और इन सबके लिए सरकार उन्हें किसानों की भूमि अधिग्रहित करके दे रही है। इसके अलावा विशेष आर्थिक क्षेत्र हैं, जहां जमीन के साथ-साथ कंपनियों को कई विशेष छूट भी दी जा रही है। ज़ाहिर है बड़े पैमाने पर भूमि अधिग्रहण विशेष कर निजी कंपनीयों के लिये भूमि अधिग्रहण का भारी विरोध होता है तथा कई बार यह विरोध हिंसक झड़प एवं राजनैतिक गतिरोध का कारण भी बन जाता हैं। इन सब ने पिछली युपीए सरकार को मजबूर किया कि वह अंग्रेजों के बनाये भुमि अधिग्रहण कानूनों पर पुर्नविचार करे तथा एक नया कानून लाये।
नया भूमि अधिग्रहण कानून 2013
इस प्रकार लगभग एक दशक के विचार विमर्श, कई ड्राफ्टों तथा दो संसदीय समितियों एवं एक मंत्रीयों के समुह के विचार विमर्श के बाद पिछली सरकार ने एक नया कानून बनाया, एवं जिसे भूमि अधिग्रहण, पुनःस्थापन एवं पूनर्वास में उचित मुआवज़ा तथा पारदर्शिता का अधिकार कानून 2013 कहा गया। तब संसद में यह कानून भाजपा सहित लगभग सभी विपक्षी दलों के समर्थन से पास हुआ था।
इस कानून का पहला मसौदा 2011 में आया था जिस पर ग्रामीण विकास मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति, जिसकी अध्यक्ष लोकसभा की वर्तमान अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन थीं, ने काफी गहन विमर्श किया था। लेकिन इसके पहले भी युपीए के पहले शासन काल में भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास तथा पुनःस्थापन के लिए दो अलग अलग विधेयक आये थे तथा लोक सभा में पारित हुए थे लेकिन राज्य सभा में पारित नहीं हो सके थे। ज़ाहिर है कि इस विषय पर कानून बनाने कि कवायद लंबे समय से चल रही थी।
इस कानून की सब से बड़ी विशेषता यह है कि इसमें भूमि अधिग्रहण से होने वाले विस्थापित तथा अन्य प्रभावितों, भूमिहीन परिवारों सहित, के पुनर्वास को कानूनी रूप से अनिवार्य किया गया है। साथ ही इसमें भुमि अधिग्रहण के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन करना ज़रूरी किया गया है तथा यदि अधिग्रहण निजी क्षेत्र या निजी-सार्वजनिक-सहभागिता के लिये हो रहा है तो क्रमशः 70 प्रतिशत तथा 80 प्रतिशत किसानों की सहमति को आवश्यक किया गया है। अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की सहमति को आवश्यक किया गया है साथ ही यह कानून शहरों में बाजार भाव से दोगुना तथा गांवों में चार गुणा मुआवजे़ का प्रावधान भी करता है।
तेरह केन्द्रीय कानूनों को मिली छूट
परन्तु साथ ही यह कानून 13 अन्य केन्द्रीय कानूनों के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण होने पर अधिकांष महत्वपूर्ण प्रावधानों से छुट भी देता है। इन 13 कानूनों के अंतर्गत भूमि अधिग्रहण होने पर इस नये कानून के केवल मुआवजा तथा पुनर्वास के प्रावधान ही लागू होेंगे। 2013 का कानून 13 केंद्रीय कानूनों के तहत होने वाले भूमि अधिग्रहण की स्थिति में कई छूट देता है, जैसे सामाजिक प्रभाव आंकलन तथा निजी एवं निजी-सार्वजनिक भागीदारी के लिए, लिए जाने वाली ज़मीन के लिए क्रमशः 70 तथा 80 प्रतिशत प्रभावितों की आवश्यक सहमती, अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा को विशेष अधिकार आदि। लेकिन ये छूट मुआवजा और पुनर्वास और पुर्नवासन के मामले में नहीं था। इन 13 कानूनों पर भी 2013 के कानून के मुआवजा और पुनर्वास और पुर्नवासन संबंधित प्रावधान लागु होने थे, जिसके लिए सरकार को 2013 के कानून के लागू होने के एक साल के अन्दर आदेश (अधिसूचना) निकलना था।
मोदी सरकार का अध्यादेश
जब एनडीए की सरकार 2014 में बनी तो यह कानून लागू हो चुका था इस कानून को लागू करने के नियम भी बन चुके थे। लेकिन बिना इस कानून को लागू किये भाजपा सरकार ने यह मान लिया कि यह कानून विकास विरोधी है तथा इसके संशोधन के लिये जो अध्यादेश तथा विधेयक 2013 के भूमि अधिग्रहण तथा पुनर्वास तथा पुनःस्थापन कानून में परिवर्तन के लिये लाया उसने न केवल उन 13 कानूनों के तहत होने वाले भूमि अधिग्रहण के मामले में 2013 के कानून के विशेष प्रावधानों के छूट को जारी रखा बल्कि 5 और प्रकार की परियोजनाओं के मामले में होने वाले भूमि अधिग्रहण में भी यह छूट बढ़ाने का प्रावधान कर दिया। इसके अलावा ’कंपनी’ शब्द की जगह ‘निजी इकाई’ शब्द ला दिया जिससे निजी क्षेत्र जिनके लिए भूमि अधिग्रहण हो सकता था उसका दायरा और बढ़ गया। इसके अलावा भी इस विधेयक में किसानों के हितों के विरुद्ध और निजी क्षेत्रों के हित में कई प्रावधान हैं।
बाद में सरकार ने यह अध्यादेश को लोकसभा मैं पारित करवाया। परन्तु राज्य सभा में यह अध्यादेश पास नहीं हुआ तथा इसे राज्य सभा की समिति के पास भेजा गया। समिति में सुझाव देने वाले अधिकांश लोगों तथा संस्थाओं ने इस कानून में सामाजिक प्रभावों का आंकलन, किसानों की सहमति तथा पुनर्वास के प्रावधानों को बनाए रखने की मांग की। इस मुद्दे पर संसद के अंदर एवं बाहर चली बहसों ने सरकार की छवि किसान एवं आदिवासी विरोधी की बना डाली। और आखिर में मजबूर होकर सरकार ने संकेत दिये कि वह प्रमुख संशोधनों को वापस ले सकती है। परन्तु संसद का वर्षाकालीन सत्र समाप्त होने तक सरकार इन संशोधनों पर कोई सहमति नहीं बना पाई तथा संशोधन विधेयक राज्य सभा में पेश नहीं हुआ।
अब 31 अगस्त को अध्यादेश की छः माह की अवधि समाप्त हो गई है तथा देश में वर्ष 2013 का भूमि अधिग्रहण, पुनःस्थापन एवं पुनर्वास में उचित मुआवजा तथा पारदर्शिता का अधिकार कानून फिर से लागू हो गया है। जा़हिर है यह किसानों एवं ज़मीन पर निर्भर लोगों के लिये एक अच्छी खबर है। इसके साथ ही सरकार ने एक सरकारी आदेश जारी किया है जो अभी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। लेकिन इसके द्वारा 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून के चैथी अनुसूची में दिये 13 केन्द्रीय कानूनों पर 2013 के कानून के बढ़े हुए मुआवज़ा तथा पुनर्वास संबंधी प्रावधानों की लागू कर दिया है।
राजस्थान सरकार का विधेयक
यहां यह चर्चा करना भी जरूरी है कि वर्ष 2014 में ही राजस्थान सरकार, राजस्थान भूमि अधिग्रहण विधेयक लाई थी, जिसमें 2013 के केन्द्रीय कानून की जगह राज्य में कानून के रूप में लागू किया जाना था तथा जिसका काफी विरोध हुआ था। बाद में यह विधेयक विधानसभा की प्रवर समिति को भेज दिया गया था, जिसने इस पर अपनी रिपोर्ट दे दी है। लेकिन इसी बीच केन्द्र सरकार ने अध्यादेश जारी कर दिया था तथा राजस्थान सरकार ने अपने विधेयक को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। केन्द्र सरकार ने अपने अध्यादेश को संसद में पारित नहीं होते देख राज्यों को यह संकेत दिया था कि वे अपना भूमि अधिग्रहण कानून ला सकते हैं। परन्तु 2013 के कानून में बदलाव के प्रयासों का भारी विरोध हुआ है उसे देखते हुए क्या राज्य सरकार केन्द्रीय कानून को पलटती हुई अपना अलग कानून लायेगी़? यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या राजस्थान सरकार अभी भी अपने भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करवाने का प्रयास करेगी?
डेली न्यूज़, जयपुर में प्रकाशित