देश में तथाकथित विकास परियोजनाओं के द्वारा विस्थापित लोगों के लिए मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना की मांग को लेकर लम्बे समय से चले जनांदोलनों के बदौलत भारतीय संसद ने किसान, आदिवासी रैयत एवं कृषक मजदूरों को भयभीत करनेवाला अंग्रेजों द्वारा लागू किया गया ‘भूमि अधिग्रहण कानून 1894’‘ को खारिज करते हुए ‘‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्स्थापन में उचित प्रतिकर एवं पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013’’ पारित किया था। लेकिन दुःखद बात यह है कि नया कानून देश में ठीक से लागू भी नहीं हो पाया था कि केन्द्र की एनडीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के माध्यम से किसान, आदिवासी रैयत एवं परियोजना प्रभावित लोगों के लिए बनाया गया सुरक्षा घेरा पर सीधा हमला करते हुए इसे समाप्त कर दिया है। केन्द्र सरकार ने सामाजिक प्रभाव आॅंकेक्षण, भूमि अधिग्रहण से पहले परियोजना प्रभावित लोगों की सहमति, खाद्य सुरक्षा, सरकारी आॅफसरों को दंडित करना एवं उपयोग रहित जमीन की वापसी जैसे अति महत्वपूर्ण प्रावधानों को ही मूल कानून से दरकिनार कर दिया है, जिससे यह अध्यादेश जमीन लूट की गारंटी को सुनिश्चित करता प्रतीत होता है।
ऐसा लगता है मानो धरती का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश को चलाने वाली सरकार प्रचंड बहुमत के आड़ में ‘लोकतंत्रिक अभाव’ के दौर से गुजर रही है। मैं ऐसा इसलिए कहा रहा हूँ क्योंकि जिस तरह से भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाया गया, वह लोकतंत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। यह अनुसूचित क्षेत्रों के लिए किये गये संवैधानिक प्रावधानों एवं आदिवासियों के परंपरिक अधिकारों को भी सिरे से खारिज करता है। केन्द्र सरकार का कहना है कि यह अध्यादेश, देश के विकास एवं किसानों के हितों के लिए फायदेमंद साबित होगा। इसलिए हमें इसपर जरूर विचार करना चाहिए कि इसे किसका भला होने वाला है। क्या इस अध्यादेश का मकसद विदेशी पूंजीनिवेश को देश में बढ़ावा देना है या ‘जनहित’ के नाम पर उद्योगपतियों को सौंपे गये जमीन की रक्षा करनी है? हमें अध्यादेश लाने की प्रक्रिया एवं महत्वपूर्ण संशोधनों पर गौर करना चाहिए।
भारतीय संविधान अनुच्छेद 123(1) के द्वारा भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया है कि जब संसद के दोनो सदन विश्रामकालीन अवस्था में हो और देश में ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाये, जिसमें त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता है तो राष्ट्रपति अध्यादेश प्रख्यापित कर सकता है। लेकिन संसद की कार्यवाही पुनः शुरू होने पर उक्त अध्यादेश को दोनों सदनों द्वारा छः सप्ताह के अंदर पारित कराना होगा। कुल मिलाकर कहें तो अध्यादेश की आयु मात्र छः महिने की है। इसलिए यहां कुछ गंभीर प्रश्न उभरना लाजमी है। देश में ऐसी कौन सी परिस्थिति थी जिसने सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने पर मजबूर किया? अध्यादेश के द्वारा केन्द्र सरकार कौन सी विदेशी पूंजीनिवेश को सुनिश्चित करना चाहती थी? अध्यादेश लाने के बाद कौन सी कंपनी ने पूंजी निवेश किया? ऐसा कौन सी विदेशी कंपनी है, जो यह जानते हुए देश में पूंजी लगायेगी कि यह अध्यादेश अगले छः महिने बाद स्वतः खारिज हो जायेगा?
इसमें गौर करने वाली बात यह है कि अध्यादेश पारित करने के लिए केन्द्र सरकार ने लोकतंत्र के मौलिक प्रक्रियाओं को पूरा ही नहीं किया। जबकि यह होना चाहिए था कि सरकार इसके लिए संयुक्त संसदीय समिति एवं सर्वदलीय बैठक बुलाकर उसमें चर्चा करने के बाद इस अध्यादेश को पारित करवाती। लेकिन केन्द्र सरकार ने अध्यादेश को सिर्फ केन्द्रीय मंत्रीमंडल में पारित करने के बाद राष्ट्रपति से हस्ताक्षर करवाकर लागू कर दिया। निश्चित तौर पर यह लोकतंत्रिक प्रक्रियाओं का खुल्ला उल्लंघन है। देश के 125 करोड़ लोगों को प्रभावित करने वाला अध्यादेश को लागू करने का निर्णय सिर्फ मंत्रीपरिषद् कैसे ले सकता है? ऐसे देश में किसान और आदिवासी रैयत कैसे सशक्त हो सकते हैं जहां उनको अपनी राय रखने की आजादी ही नहीं है? क्या केन्द्र सरकार ने पूंजीपतियों के दबाव में गैर-लोकतंत्रिक कदम उठाया?
केन्द्र सरकार ने अध्यादेश के माध्यम से मूल कानून में भाग-तीन (अ) जोड़ दिया है, जो सरकार को यह शक्ति प्रदान करती है कि जनहित के वास्ते राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण आधारभूत सरंचना निर्माण, गृह निर्माण, औद्योगिक क्षेत्र एवं पब्लिक प्राईवेट पार्टनर्शिप से संबंधित परियोजनाओं से मूल कानून के भाग-दो एवं तीन को सरकार मुक्त रखेगी। इन परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण के समय सामाजिक आंकेक्षण और परियोजना से प्रभावित लोगों से पूछने की आवश्यकता नहीं होगी। यह निश्चित तौर पर मूल कानून की आत्मा और लोकतंत्रिक मूल्यों की हत्या है। जमीन अधिग्रहण करते समय किसानों एवं आदिवासी रैयतों से क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए जब औद्योगिक विकास के लिए नीति बनाते समय सरकार उद्योगपतियों को सभी मोर्चो पर सम्मिलित करती है? लोकतंत्र ऐसे सेलेक्टिव कैसे हो सकता है? क्या लोकतंत्र इस देश के किसान, आदिवासी रैयत और कृषक मजदूरों के लिए सिर्फ एक दिन का मामला है?
विकास परियोजनाओं का सामाजिक प्रभाव अंकेक्षण होना बहुत ही अनिवार्य हैं क्योंकि आजादी से लेकर वर्ष 2000 तक विकास परियोजनाओं से 6 करोड़ लोग विस्थापित व प्रभावित हुए हैं, जिनमें से 75 प्रतिशत लोगों का पुनर्वास अबतक नहीं हुआ है। भारत सरकार द्वारा आदिवासियों की भूमि वंचितिकरण एवं वापसी पर गठित ‘‘एक्सपर्ट ग्रुप’’ के अनुसार 47 प्रतिशत विस्थापित एवं प्रभावित होने वाले लोग आदिवासी हैं। देश के तीन बड़े विकास परियोजनाएं – टाटा स्टील, जमशेदपुर, एच.ई.सी., रांची एवं बोकारो स्टील लिमिटेड, बोकारो इस बात के गवाह हैं कि बिना सामाजिक अंकेक्षण किये इन परियोजनाओं को स्थापित किया गया। फलस्वरूप, इन परियोजनाओं से सबसे ज्यादा आदिवासी लोग प्रभावित हुए। उनकी पहचान, भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज एवं पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था समाप्त हो गई। अब वे शहरों में रिक्सा चालकों, मजदूरों एवं घरेलू कामगारों के भीड़ में शामिल हो चुके हैं।
कैग (भारत के नियंत्रक एवं महलेखपरीक्षक) ने भी अपने रिपोर्ट (संख्या 21 – 2014) में कहा है कि सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) परियोजनाओं में पुनर्वास की स्थिति ठीक नहीं है। उदाहरण के तौर पर देखें तो आंध्रप्रदेश के विशाखापटनम जिले के अतचयुतापुरम में वर्ष 2007-08 में एपाइक के सेज परियोजना के लिए 9287.70 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया, जिसमें 29 गांवों के 5079 परिवार विस्थापित हुए। लेकिन इनमें से सिर्फ 1487 परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है, जो स्पष्ट दिखाता है कि जमीन अधिग्रहण करने से पहले कंपनियां ठीक ‘‘लोकसभा चुनाव अभियान’’ की तरह वादा करते हैं लेकिन जमीन अधिग्रहण करने के बाद अपना वादा भूल जाते हैं और विस्थापितों को रोने-धोने हेतु छोड़ देते हैं। इस तरह से जमीन के मालिक नौकर बनने पर मजबूर कर दिये जाते हैं।
यह निश्चित तौर पर पांचवीं एवं छठवीं अनुसूचि क्षेत्र के तहत आने वाले राज्यों के लिए चिंता का विषय है, जहां संवैधानिक प्रावधान, पेसा कानून एवं जमीन संबंधी कानून इस बात पर जोर देते हैं कि आदिवासियों की जमीन गैर-आदिवासी नहीं खरीद सकते हैं और गैर-कानूनी तरीके से खरीदी गयी जमीन वापस की जा सकती है। ये कानून उनके संस्कृतिक पहचान, परंपरा, रीति-रिवाज एवं सामुदायिक अधिकारों की गारंटी देते हैं। इसी तरह वन अधिकार कानून 2006 व्यक्तिगत एवं सामुदायिक अधिकारों की गारंटी देती हैं। इसलिए सामाजिक अंकेक्षण एवं प्रभावित समुदायों के स्वीकृति के बगैर जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। उदाहण के लिए झारखंड औद्योगिक नीति 2012 में कही गयी है कि राज्य सरकार कोडरमा से लेकर बहरागोड़ा तक सड़क के दोनो तरफ 25-25 किलोमीटर क्षेत्र में औद्योगिक काॅरिडोर का निर्माण करेगी। यहां सबसे ज्यादा जमीन आदिवासियों का ही अधिगृहित होगी। ऐसी स्थिति में क्या उनसे बिना पूछे उनके जमीन का अधिग्रहण करना उनके साथ अन्याय नहीं है?
सुप्रीम कोर्ट ने नियमगिरि पहाड़ से संबंधित ‘‘ओडिसा माईनिंग काॅरपोरेशन लि. बनाम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय’’ के मामले पर सुनवाई करते हुए पेसा कानून 1996 की धारा – 4 (डी) को शक्ति से लागू करने की बात कही है, जिसके तहत ग्रामसभा को सर्वोपरि माना गया है, जिसके पास समुदाय की संस्कृतिक पहचान, परंपरा, राति-रिवाज, समुदायिक संसाधन एवं सामाजिक विवाद को हल करने की शक्ति है। इतना ही नहीं, आदिवासियों की सामाजिक-आर्थिक, शिक्षा एवं स्वास्थ्य की स्थिति पर अध्ययन करने के लिए गठित ‘खाखा समिति’ ने इस बात पर जोर दिया है कि आदिवासियों के लिए जमीन उनके सामाजिक-आर्थिक, धार्मिक पहचान, आजीविका एवं अस्तित्व का आधार है। ऐसी स्थिति में जमीन के बदले सिर्फ मुआवजा के रूप में पैसा दे देने से उनका अस्तित्व नहीं बच सकता है। इसलिए सरकार किसी भी मायने में इन आधिकारों को एक अध्यादेश के द्वारा नहीं छिन सकती है।
भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना कानून में खाद्य सुरक्षा की गारंटी को सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया है, जिसके तहत यह कही गयी है कि किसी भी हालत में खेती की जमीन का अधिग्रहण नहीं करना है और अगर ऐसा करने की परिस्थिति आयी तो जमीन मालिकों को जमीन के बदले जमीन उपलब्ध कराकर उसे खेती योग्य बनाया जायेगा। लेकिन अध्यादेश के द्वारा इसे खारिज कर दिया गया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश का कुल 55 प्रतिशत जनसंख्या एवं 91.1 प्रतिशत आदिवासी लोग अभी भी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर पूर्णरूप से निर्भर है। विगत दो दशकों का अनुभव बताता है कि देश में खाद्यान्न उत्पादन में कमी आयी है। यह सन 1986-97 की तुलना में 1996-2008 में 3.21 प्रतिशत से 1.04 प्रतिशत की कमी आयी है। इसलिए खाद्य सुरक्षा के सवाल पर किसी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता है।
केन्द्र सरकार ने अध्यादेश के द्वारा सरकारी आॅफसरों को सजा मुक्त कर दिया है। मूल कानून में यह प्रावधान किया गया था कि सरकारी विभाग द्वारा कानून का उलंघन करने की स्थिति में विभाग के वरिष्ठ पदाधिकारी सजा के भागीदार होंगे लेकिन अध्यादेश के द्वारा सरकार ने न्यायालय से यह अधिकार छिन लिया है। कानून का उल्लंघन करने के बावजूद आॅफसरों के खिलाफ बिना विभागीय अनुमति के कोई भी न्यायलय में मामला नहीं चल सकता है। लेकिन कानून में सजा का प्रावधान जरूरी इसलिए है क्योंकि सरकारी आॅफसरों के लापरवाही के कारण विस्थापितों को समय पर मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन सही ढंग से नहीं मिलता है। कई परियोनाओं में ऐसा भी देखा गया है कि विस्थापितों के जगह पर किसी अन्य व्यक्ति को मुआवजा की राशि दे दी गयी।
एक अन्य महत्वपूर्ण संशोधन सेक्शन 101 में किया गया है, जिसमें अवधि जोड़ दी गयी है, जिसमें यह व्यवस्था थी कि अधिगृहित जमीन का उपयोग उक्त परियोजना के लिए 5 वर्षों तक नहीं होने की स्थिति में जमीन मालिक को वापस किया जाना अनिवार्य था। देश में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिसमें जनहित के नाम पर जमीन का अधिग्रहण किया गया लेकिन उपयोग नहीं होने के कारण कई दशकों तक बेकार पड़ा रहा। टाटा स्टील लि., जमशेदपुर में स्थापित स्टील प्लांट के लिए 12,708.59 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था लेकिन सिर्फ 2163 एकड़ जमीन का ही उपयोग हुआ और शेष जमीन बेकार पड़ी रही, जिसमें से 4031.075 एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से सब-लीज में दे दिया गया। इसी तरह एच.ई.सी. रांची के लिए वर्षा 1958 में 7199.71 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया, जिसमें से सिर्फ 4008.35 एकड़ जमीन का ही उपयोग मूल मकसद के लिए किया गया, 793.68 एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से निजी संस्थानों को सब्लीज में दे दी गयी एवं शेष जमीन अभी तक उपयोग रहित हैं।
कैग द्वारा जारी ‘‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’’ पर प्रतिवेदन 2012-13 देखने से स्पष्ट होता है कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश मूलतः अंबानी, अदानी जैसे उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने के लिए लाया गया है, जिन्होंने ‘‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’’ के निर्माण हेतु भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा – 6 के तहत ‘‘जनहित’’ के नाम पर अत्याधिक जमीन का अधिग्रहण किया लेकिन उसका समुचित उपयोग नहीं कर पाया है। ऐसी स्थिति में अधिगृहित जमीन मूल रैयतों को वापस देना पड़ सकता है। चूंकि इन्ही औद्योगिक घरानों ने लोकसभा चुनाव में भारी पैसा लगाकर नरेन्द्र मोदी को सिंहासन पर बैठाया था इसलिए अब केन्द्र सरकार अध्यादेश के द्वारा उनकी जमीन बचाकर अपना कर्ज उतारना चाहती है।
कैग प्रतिवेदन के अनुसार, सेज कानून के लागू होने से अबतक 576 सेज परियोजनाओं की स्वीकृति प्रदान की गयी, जिसके तहत 60374.76 हेक्टेअर जमीन का अधिग्रहण हेतु स्वीकृति मिली। इनमें से मार्च 2014 तक 392 सेज परियोजनाओं के लिए 45,635.63 हेक्टेअर जमीन पर नोटिफिकेशन जारी किया गया। लेकिन 392 में से सिर्फ 152 परियोजना लग पायी है, जिसमें 28488.49 हेक्टेअर जमीन शामिल है। इसके अलावा शेष 424 सेज परियोजनाओं को दी गयी 31886.27 हेक्टेअर जमीन यानी 52.81 प्रतिशत परियोजनाओं में कोई काम आगे नहीं बढ़ा, जबकि इनमें से 54 परियोजनाओं का नोटिफिकेशन 2006 में की गयी थी। यानी मूल कानून के अनुसार इन परियोजनाओं की अवधि समाप्त हो चुकी है इसलिए अधिगृहित जमीन मूल रैयतों को वापस करना पडेगा।
कैग रिपोर्ट इस बात का भी खुलासा करती है कि 392 नोटिफाईड सेज परियोजनाओं में से 1858.17 हेक्टेअर जमीन से संबंधित 30 सेज परियोजनाएं अंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिसा एवं गुजरात से संबंधित हैं, जिनमें डेवलपर्स ने कुछ भी कार्य नहीं किये है और जमीन 2 से 7 वर्षों तक बेकार पड़ी हुई है। इतना ही नहीं कैग रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि इन राज्यों में 39245.56 हेक्टेअर जमीन में से 5402.22 हेक्टेअर जमीन को डिनोटिफाईड किया गया और दूसरे आर्थिक कार्यों में लगाया गया, जो सेज के उद्देश्य के खिलाफ है। कैग ने सेज परियोजनाओं के लिए अधिगृहित जमीन का उपयोग नहीं करने के लिए रिलायंस, डीएलएफ, एस्सार की खिचाई भी की है।
निश्चित तौर पर केन्द्र सरकार ने एक षडयंत्र के तहत भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के द्वारा ‘भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनव्यर्वस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार अधिनियम, 2013’ के मूल उद्देश्य को ही समाप्त कर दिया है, जिसे परियोजना प्रभावित लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करने, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना में पारदर्शिता लाने के लिए लागू की गयी थी। इस कानून के माध्यम से देश के विकास, राष्ट्रहित एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर विस्थापितों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को न्याय में बदलने का वादा किया गया था। इसलिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को वापस लेना चाहिए क्योंकि इससे जमीन लूट को बढ़ावा मिलेगी जिसका किसान, आदिवसी रैयत एवं कृषक मजदूरों पर विपरीत असर पड़ेगा।
आदिवासी हुंकार से साभार