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देश में कोरोना मरीज़ों की संख्या 20 लाख से अधिक हो गयी है जिसमें से दो तिहाई से अधिक मरीज़ ठीक हो चुके हैं लेकिन सक्रिय मामलों कि संख्या अभी भी 6 लाख से अधिक है। देश में कोरोना से अब तक 42 हज़ार से अधिक मौतें हो चुकी हैं। कोरोना एक महामारी का रूप ले चुका है और अब रोज़ाना देश में अब रोज़ाना 60 हज़ार से अधिक नए मरीज़ मिल रहे हैं। ज़ाहिर है कि कोरोना का अब सामुदायिक संक्रमण हो रहा है, भले सरकार इस बात से इंकार करती रही है। हर दिन के संक्रमितों के आंकड़े पिछले दिनों से अधिक हो रहे हैं। लेकिन हमारा स्वास्थ्य तंत्र इस संकट से निबटने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है। मरीज़ों के अस्पताल में जगह नहीं मिलने, अस्पतालों की बदहाली और स्वास्थ्य कर्मियों के लिए पर्याप्त सुरक्षा के उपकरणों के अभाव के रिपोर्ट मीडिया में भरे पड़े हैं।
कोरोना एक सामाजिक आर्थिक संकट
लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं, कोरोना या कोविड-19 नामक ये महामारी सिर्फ एक स्वास्थ्य संकट ही नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा सामाजिक आर्थिक संकट बन कर हमारे सामने आया है। कोविड-19 को फैलने से रोकने के लिए दुनिया अधिकांश देशों की तरह अपने देश में भी तालाबंदी की गयी थी, जिससे लगभग 2 माह तक देश में सभी आर्थिक गतिविधियाँ थम गयी थीं। इसका सबसे भयावह प्रभाव पूरे देश से मज़दूरों का अपने अपने गॉंवों और शहरों की ओर उलटी पलायन के रूप में दिखा। लाखों मज़दूर हफ़्तों सड़कों पर पैदल, या साइकिल, ट्रक जो भी साधन मिला उस से तमाम मुश्किलें झेलते हुए अपने गॉंवों को वापस जाते रहे और सरकार ने उनके लिए कोई इंतज़ाम नहीं किया, अदालतों ने उनके दुखों का संज्ञान नहीं लिया या प्रभावी रूप से उनका साथ नहीं दे सके।
दूसरा बड़ा संकट इस महामारी ने हमारी पहले से ही चरमराई अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ कर खड़ा कर दिया है। देश में पहले से ही बढ़ती बेरोज़गारी पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक हो गयी थी और लॉकडाउन में और भी बढ़ गयी। CMIE के आंकड़ों के अनुसार फ़रवरी 2020 में देश में 7% से अधिक बेरोज़गारी थी जो मार्च में 10% से अधिक हो गयी और अप्रैल और मई महीने में, जब देश भर में संभवतः दुनिया में सबसे सख्त लॉकडाउन लगा था, बढ़ कर 23% से भी अधिक हो गयी थी। जून में इस भयावह बेरोज़गारी में कमी आयी और यह 11% हो गयी थी और जुलाई 2020 में देश में बेरोज़गारी की दर पुनः 7% से अधिक ही रही है। राजस्थान में बेरोज़गारी की दर जून में 13.7% थी। ज़ाहिर है कि लॉकडाउन की समाप्ति के बाद, अनलॉक के समय में, भी आर्थिक गतिविधियाँ कोरोना के डर के साये में ही कुछ कुछ शुरू हो रही हैं। इस कोरोना संकट ने बेरोज़गारी के साथ ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी जैसे पुराने मसलों को भी पहले से बड़ा किया है।
देश भर में, विशेष कर उन राज्यों में, जो देश के औद्योगिक केंद्रों और विकसित राज्यों को श्रमिक मुहैया करवाते रहे हैं, शहरों और औद्योगिक केंद्रों से लाखों लोग वापस लौटे हैं। उनमें से कुछ अब वापस शहरों की तरफ जाने लगे हैं लेकिन अधिकांश अभी भी काम शुरू नहीं होने और अन्य कारणों से गाँवों में ही रुके हुए हैं और वहीँ रोज़ी रोटी का इंतज़ाम होने की आस लगा रखे हैं। लेकिन कोरोना के इस संकट ने देश भर रोज़गार के अवसर समाप्त कर दिए हैं। इन दिनों में देश गाँवों में रोज़गार देने में मुख्यतः महात्मा गाँधी नरेगा का ही सहारा रहा है। पिछले वर्ष (2019-20) जहाँ पुरे देश में कुल 265.35 करोड़ कार्य दिवस का रोज़गार महात्मा गाँधी नरेगा में लोगों को मिला था वहीँ इस वर्ष (2020-21) में पहले चार महीनों (अप्रैल-जुलाई) में ही लगभग 170 करोड़ कार्य दिवस का कार्य हो चूका है। राजस्थान में जहाँ पिछले वर्ष कुल 32.88 करोड़ दिवस का कार्य हुआ था वहीं इस वर्ष के पहले चार महीनों में ही 17.40 करोड़ कार्य दिवस मनरेगा में सृजित हो हैं। इसके बावजूद जैसा की ऊपर कहा गया है देश व राज्य में बेरोज़गारी अपने उच्चतम स्तर पर बनी हुई है।
उलटी पलायन (रिवर्स माइग्रेशन) से विभिन्न राज्यों में लौटे मज़दूर:
असल में देश में बड़े पैमाने पर होने वाले पलायन के सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। देश में जहाँ करोड़ों लोग दीर्घ अवधि के लिए पलायन करते हैं वहीँ बहुत अधिक संख्या में लोग हर वर्ष कुछ महीने लिए (सीजनल) पलायन करते हैं। बहुत से लोग जनगणना के समय या एनएसएस के आंकड़े संग्रहण के समय से पूर्व एक से अधिक जगहों पर रुक रुक कर और काम कर कहीं पहुंचे होते हैं । दस वर्ष में होने वाला जनगणना इस प्रकार के अल्पावधि या विभिन्न स्थानों वाले पलायन को पकड़ पाने में सक्षम नहीं है।
उसी प्रकार देश भर में कोरोना संकट के दौरान अपने राज्यों में वापस लौटे मज़दूरों की संख्या के सटीक आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं। अलग अलग अध्ययनों में उनके अलग अलग अनुमान लगाए गए हैं। विभिन्न अध्ययनों के मुताबिक़ मार्च से अब तक देश में 2.2 से 5 करोड़ लोग विभिन्न राज्यों से अपने राज्य घर वापस लौटे हैं।
राजस्थान की बात करें तो राज्य में सूचना तकनीकी विभाग के अनुसार कुल 18 लाख 40 हज़ार प्रवासी मज़दूर घरों को वापस आए हैं जिनमें से 13 लाख से अधिक मज़दूर दुसरे राज्यों में काम कर रहे थे जबकि लगभग 5 लाख मज़दूर राजस्थान के ही विभिन्न ज़िलों में काम करते थे और कोरोना संकट उन्हें अपने घर वापस जाने को किया है । लेकिन वापस लौटे मज़दूरों की संख्या इससे कहीं अधिक होगी क्योंकि इसमें वो मज़दूर शामिल नहीं हैं जो बिना सरकारी वेबसाइट पर निबंधित किये अपने स्तर पर पैदल, साइकिल से या साधनों से वापस आ गये थे।
ज़ाहिर है ये लोग बहुत जल्द वापस पुनः उन्हीं जगहों पर नहीं जाना चाहेंगे या चाहते हुए भी नहीं जा पाएंगे क्योंकि उनके काम के जगहों पर काम फिर से शुरू होना आसान नहीं दिख रहा है।
चरमारती अर्थव्यवस्था
क्योंकि अर्थव्यवस्था से जुड़े सभी रिपोर्ट इस वर्ष देश में बहुत ही धीमी या नकारात्मक आर्थिक वृद्धि का अनुमान लगा रहे हैं। यह माना जा रहा है कि कुल मिलाकर देश की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ने के बजाये सिकुड़ने वाला है। ऐसे में रोज़गार के नए अवसर शायद ही पैदा हों। ज़ाहिर है ये लोग अपने गाँवों / शहरों में या आस पास ही रोज़गार के अवसर तलाशेंगे। तो क्या हमारी अर्थव्यस्था इतने बड़े पैमाने पर देश ले लोगों के लिए उनके अपने ही राज्यों में रोज़गार उपलब्ध करवाने में सक्षम है। हमारी अर्थव्यवस्था, जो पहले ली गयी नीतिगत फ़ैसलों (जैसे नोट बंदी, यह वस्तु एवं सेवा कर) के प्रभाव से उबरने का प्रयास कर रही थी और अब कोरोना संकट के बोझ तले दबी हुई है, के लिए तुरंत इतना रोज़गार पैदा कर पाना तो मुश्किल ही है।
विकास का नया ढांचा!
ऐसे में बड़े बड़े शहरों और कुछ औद्योगिक रूप से संपन्न राज्यों के विकास और क्षेत्रीय असमानता पर टिके हमारे विकास के ढांचे पर पुनर्विचार करने का समय आ गया है। अब जब हम अर्थव्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने का प्रयास कर रहे हैं तो हमें अपने विकास के ढांचे में कुछ बुनियादी बदलाव लाने पर विचार करना चाहिए।
वर्तमान में विकास का ढाँचा पूरी तरह से केंद्रीयकृत है व ऊपर से नीचे (topdown) के विकास की कल्पना करता है और तीव्र आर्थिक विकास (जीडीपी में तेज़ी से वृद्धि) को सर्वपरि मानता है, जिसमें ऐसा समझा जाता है कि विकास के फायदे ट्रिकल हो (रीस) कर सभी तक पहुँचेंगे। अगर इस आर्थिक विकास की अवधारणा पर पहले कोई सवाल था भी तो 1990 के दशक में लागू की गयी नयी आर्थिक नीतियों (आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) ने उन सवालों को अनदेखा कर खुले रूप तीव्र आर्थिक विकास के इस केंद्रीयकृत ढांचे को अपना लिया था। लेकिन पिछले दशकों के अनुभव दिखाते हैं कि विकास का ये केंद्रीकृत उदारवादी ढांचा देश में ग़रीबी भूख कुपोषण और सबसे बढ़कर बेरोज़गारी दूर करने में सक्षम नहीं है।
हमें विकास की नयी अवधारणा विकसित और लागू करनी होगी जो स्थानीय स्तर पर लोगों को रोज़गार देने में सक्षम हो, जिसमें लोग अपनी मर्ज़ी से पढाई या बेहतर जीवन स्तर की आस में पलायन करें न कि उन्हें पलायन के लिए मजबूर न होना पड़े, जिसमें सबको खाद्य एवं सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध हो और सामाजिक और आर्थिक असमानता कम से कम हो, जिसमें पर्यावरण, वन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों संरक्षण एवं समुचित उपयोग सुनिश्चित हो ।
ऐसा विकास स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों के विकास के उद्देश्य से की गयी मानव विकास केंद्रित स्थानीय आयोजना (local level planning) से ही संभव है। और अच्छी बात ये हैं कि हमारा संविधान ही नहीं सरकार की वचनवद्धता ऐसे ही विकास का आधार उपलब्ध करवाती है।
विकेन्द्रीकृत विकास का संवैधानिक आधार
भारतीय संविधान के भाग IX और भाग IX A (अनुच्छेद 243) ग्रामीण एवं शहरी स्थानीय निकायों (पंचायत तथा नगर निकाय) को स्थानीय स्तर पर विकास के लिए आयोजना बनाने की ज़िम्मेदारी देते हैं। संविधान के अनुच्छेद 243ZD हर ज़िले में एक ज़िला आयोजना समिति के बारे में है, जो ग्रामीण तथा शहरी निकायों द्वारा बनाये गए योजनाओं के आधार पर एक ज़िला विकास आयोजना बनाती है । यही नहीं संविधान की 11वीं और 12वीं अनुसूची में इन निकायों के अधिकार, कर्तव्य इनके अधिकार क्षेत्र में विषय आदि भी स्पष्ट किये गए हैं । अब समय है कि पंचायती राज व शहरी निकायों द्वारा आयोजना को गंभीरता से लिया जाये। इस प्रकार विकास की विकेन्द्रित आयोजना, जो एक संवैधानिक अनिवार्यता है, क्षेत्रीय असमानता को दूर करने में भी सहायक होगा।
इसके साथ ही हमें विकास के इस ढांचे में रोज़गार एवं आय वृद्धि के साथ समानता, खाद्य एवं सामाजिक सुरक्षा, श्रम की गरिमा का सम्मान का भी स्थान सुनिश्चित करना होगा। विकास को मानव विकास केंद्रित और पर्यावरण के अनुकूल बनाना होगा। इसी प्रकार इस विकास की प्राथमिकताएं तय होनी होंगी। कुछ प्राथमिकतायें जो फ़िलहाल आवश्यक हैं उनकी चर्चा नीचे की जा रही है।
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सतत विकास लक्ष्य: सयुंक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप विकास की नीतियों को आगे बढ़ाना इस समय और भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
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स्वास्थ्य तंत्र की मज़बूती : इनके साथ ही फ़िलहाल पहली प्राथमिकता हमारी स्वस्थ्य सेवाओं को तेज़ी से मज़बूत करना होगा जिससे कोरोना संकट के समय में कोरोना ग़ैर-कोरोना रोगियों को पूरा इलाज, उचित सहायता और देखभाल मिल सके।
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पर्यावरण संरक्षण एवं मौसम में बदलाव
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बेहतर आपदा प्रबंधन एवं तैयारी
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श्रमिक कानूनों का पालन एवं सामाजिक सुरक्षा
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टिकाऊ कृषि एवं उचित भूमि वितरण / प्रबंधन
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टिकाऊ एवं समता आधारित शहरी विकास